Tuesday, May 31, 2011

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Saturday, May 28, 2011

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Wednesday, May 25, 2011

महाराजा छत्रसाल


चंपतराय जब समय भूमि मे ंजीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1707 (सन 1641) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म हुआ। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ।
पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मइ्र 1665 में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गयाउनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।
इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषंे।

शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन 1670 में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल मिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. 1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।

संघर्ष का शंखनाद
छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। चचेरे भाई बलदीवान अवश्य उनके साथ थे। छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बांसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए।
ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन 1671 में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया। ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये। सन 1671-80 की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया। सन 1675 में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय
जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।

बुंदेले राज्य की स्थापना
इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1744 की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चैथ देने लगे।
बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया।
सन 1707 में औरंगजेब का निध्न हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसाल ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दी।
महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग 80 वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं
जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बंुदेल की राखौ बाजी लाज।
फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला।
यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बंुदेलखंड झाँसी (Jhansi), सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी। कतिपय इतिहासकार इसे एक संधि के अनुसार दिया हुआ बताते हैं पर जो भी हो अपनी ही माटी के दो वंशों, मराठों और बुंदेलों ने बाहरी शक्ति को पराजित करने में जो एकता दिखायी, वह अनुकरणीय है।
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया। राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों मेंः
राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि
छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।

यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय 14 करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे। प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् 1788 (दिसंबर 1731) को छतरपुर (chhatarpur) (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये।
छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी। वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे। अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषण के बुंदेलखंड (bundelkhand) में आने पर आगवानी में जब छत्रसाल ने उनकी पालकी में अपना कंधा लगा दिया तो भूषण कह उठेः
और राव राजा एक चित्र में न ल्याऊं-
अब, साटू कौं सराहौं, के सराहौं छत्रसाल को।।
बुंदेलखंड (bundelkhand) ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति पीढ़ी दर पीढ़ी कृतज्ञ रहेगा

ओसामा बिन लादेन का जीवन परिचय


ओसामा बिन लादेन


सऊदी अरब के एक धनी परिवार में दस मार्च 1957 में पैदा हुए ओसामा बिन लादेन, अमरीका पर 9/11 के हमलों के बाद दुनिया भर में चर्चा में आए.वे मोहम्मद बिन लादेन के 52 बच्चों में से 17वें थे. मोहम्मद बिन लादेन सऊदी अरब के अरबपति बिल्डर थे जिनकी कंपनी ने देश की लगभग 80 फ़ीसदी सड़कों का निर्माण किया था.
जब ओसामा के पिता की 1968 में एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हुई तब वे युवावस्था में ही करोड़पति बन गए. सऊदी अरब के शाह अब्दुल्ला अज़ीज़ विश्वविद्यालय में सिविल इंज़ीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान वे कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षकों और छात्रों के संपर्क में आए.
अनेक बहसों और अध्ययन के बाद वे पश्चिमी देशों में मूल्यों के पतन के ख़िलाफ़ और इस्लाम के कट्टरपंथी गुटों के समर्थन में खड़े हो गए. इससे पहले अपने परिवार के साथ युरोप में मनाई गई छुट्टियों की तस्वीरों में ओसामा को फैशनेबल कपड़ों में भी देखा गया था.
दिसंबर 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो ओसामा ने आरामपरस्त ज़िदंगी को छोड़ मुजाहिदीन के साथ हाथ मिलाया और शस्त्र उठा लिए.
अफ़ग़ानिस्तान में अरब लोगों के साथ मिलकर अभियान करते वक्त ही उन्होने अल कायदा के मूल संगठन की स्थापना कर ली थी. अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीन का साथ देने के बाद जब वो वापस साऊदी अरब पहुँचे तो उन्होंने साऊदी अरब के शासकों का विरोध किया. ओसामा का मानना था कि साऊदी अरब के शासकों ने ही अमरीकी सेना को साऊदी ज़मीन पर आने के लिए आमंत्रित किया था. मध्य पूर्व में अमरीकी सेना की मौज़ूदगी से नाराज़ ओसामा बिन लादेन ने 1998 में अमरीका के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी थी.
वर्ष 1994 में अमरीकी दबाव के कारण सऊदी अरब में उनकी नागरिकता ख़त्म कर दी थी और उसके बाद वे सूडान और फिर जनवरी 1996 में दोबारा अफ़ग़ानिस्तान मे पहुँच गए. ग़ौरतलब है कि वर्ष 1998 में ही कीनिया और तंज़ानिया में अमरीकी दूतावासों में हुए दो बम धमाकों में 224 लोग मारे गए और 5000 घायल हुए. अमरीका ने ओसामा और उनके 16 सहयोगियों को प्रमुख संदिग्ध बताया.
इसके बाद अमरीका ओसामा को दुश्मन के रूप में देखने लगा और ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई की मोस्ट वॉंटिड लिस्ट में उन्हें पकड़ने या मारने के लिए 2.5 करोड़ डॉलर के पुरस्कार की घोषणा की गई. पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में छह प्रशिक्षण शिविरों पर अमरीका ने ओसामा को मारने के मक़सद से 75 क्रूज़ मिसाइल दागे. लेकिन एक घंटे की देरी से उनका निशाना चूक गया.
अफ़्रीका में बम घटनाओं के साथ-साथ अमरीका ने उन्हें 1993 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में बम धमाके, 1995 में रियाद में कार बम धमाके, सऊदी अरब में ट्रक बम हमले का दोषी पाया.
रविवार डॉट कॉम के अनुसारसऊदी अरब में एक यमन परिवार में पैदा हुए ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के ख़िलाफ़ लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए 1979 में सऊदी अरब छोड़ दिया. अफगानी जेहाद को जहाँ एक ओर अमरीकी डॉलरों की ताक़त हासिल थी वहीं दूसरी ओर सऊदी अरब और पाकिस्तान की सरकारों का समर्थन था. मध्य पूर्वी मामलों के विश्लेषक हाज़िर तैमूरियन के अनुसार ओसामा बिन लादेन को ट्रेनिंग सीआईए ने ही दी थी.
अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने मक्तब-अल-ख़िदमत की स्थापना की जिसमें दुनिया भर से लोगों की भर्ती की गई और सोवियत फ़ौजों से लड़ने के लिए उपकरणों का आयात किया गया.
मौत-
पाकिस्तान के ऐबटाबाद शहर में हुए अमरीकी सेना के अभियान में 2 मई 2011 को उन्हें मार डाला गया. ओसामा बिन लादेन की मौत के 12 घंटे के बाद अमरीका के विमान वाहक पोत यूएसएस कार्ल विन्सन पर शव को एक सफ़ेद चादर में लपेट कर एक बड़े थैले में रखा गया और फिर अरब सागर में उतार दिया गया. यह सब ब्रितानी समयानुसार सुबह छह बजे हुआ. अमरीकी अधिकारी समुद्र मेंसीबीएस न्यूज़ के मुताबिक, सऊदी अरब ने शव लेने से इनकार कर दिया था. अगर यह बात सही है तो इसका मतलब उन्हें यह प्रस्ताव दिया गया था और अगर सऊदी अरब ओसामा को अपने यहाँ कहीं दफ़ना देता तो क़ब्र को मज़ार बनते देर नहीं लगती.
उसके मारे जाने के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को याद करते हुये कहा कि जैसा बुश ने कहा था हमारी जंग इस्लाम के खिलाफ नहीं है. लादेन को पाकिस्तान में इस्लामाबाद के एक कंपाउंड में मारा गया. एक हफ्ते पहले हमारे पास लादेन के बारे में पुख्ता जानकारियां मिल गई थीं. उसने बाद ही कंपाउंड को घेरकर एक छोटे ऑपरेशन में लादेन को मार गिराया गया.
बराक ओबामा ने कहा कि लादेन ने पाक के खिलाफ भी जंग छेड़ी थी. हमारे अधिकारियों ने वहां के अधिकारियों से बात कि और वह भी इसे एक ऐतिहासिक दिन मान रहे हैं. यह 10 साल की शहादत की उपलबधि है. हमने कभी भी सुरक्षा से समझौता नहीं किया. अल कायदा से पीड़ित लोगों से मैं कहूंगा कि न्याय मिल चुका है.
9/11 के सकता है. पैसे और ताकत से नहीं बल्कि एकजुटता ही हमारी शक्ति है.

Monday, May 23, 2011

झाँसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई



महारानी लक्ष्मी बाई एक ऐसी महारानी थी !
जो आज तक न तो इतिहास में हुई है और न कभी होगी!
आज आपको पेस है उनके जीवन के कुछ मह्त्वपूर्ण कार्य !
महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 को वाराणसी में हुआ था!इनके बचपन का नाम मनूबाई था सब प्यारसे इन्हें मनु कहा करते थे!पेशवा बाजीराव दुतीय ने उन्हें एक नाम और दे रखा था छबिली !उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे माता का नाम भागीरथी था !4 बर्ष की आयु में ही उन्हें माता के प्रेम से बंचित होना!उनके पिता को बाजिराव ने कानपूर के पास बिठुर बुला लिया यहाँ मनूबाई को पेशवा के पुत्र नाना साहब के साथ तलबार चलाना घुङसबारी आदि सीखने को मिला!उनका विवाह 13 बरस की आयु में झाँसी के महाराजा गंगाधरराव के साथ हुआ !सोलह बरस की आयु में बे माता बनी पुत्र का नाम दामोदर रखा गया !किन्तु शीघ॒ ही उस पुत्र दामोदर की मत्यु हो गयी! इस दुःख को महाराज सहन नहीं कर पाए और कहा जाता है पुत्र शोक में उनकी मौत हो गयी !तब उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया उसका नाम भी दामोदर रखा!16 march 1854 में रानी को निर्बर मानकर तत्कालीन गबर्नर लार्ड डलहोजी ने झाँसी को हड़प निति के तहत ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का निश्चय किया !तभी रानी ने चेतावनी देते हुए कहा में अपनी झाँसी नहीं दुगी ! सन॒ 1857को नाना साहब तात्या टोपे आदि के नेतृत्व में इस युद्ध की प्रस्थ्भूमि तैयार की गयी!अग्रेजो के साथ युद्ध सुनिश्चित था !नारियों के साथ सेना में पुरुष भी सामिल किये गए!
झाँसी के राज्य को सुचारू रूप से चालने के लिए दीवान रघुनाथ सिंह को सेनापति नियुक्त किया गया तोपों का दस्ता गॉस खान को सोपा गया भाऊ बख्सी को उनका सहयोगी बना या गया !मोतीबाई को जासूसी बिभाग सोपा गया!
मह्लायो की अश्वारोही सेना का नेतित्व अपनी कृपा पात्री सहेली झलकारी बाई को सोपा गया!बारूद बनाने के लिए कुसल आदमी बुलाए गए !कड़क बिजली व भबानी शंकर नाम की टॉप बनायीं गयी!आग्रेजो के साथ युद्ध करने के पूर्व उन्हें दो युद्ध और लड़ने थे !
पहला था गंगाधरराव के सम्बन्धी सदाशिव राव के साथ व दूसरा युद्ध ओरछा के दीवान नत्थे खान के साथ हुआ !
नत्थे खान ने बीस हज़ार की सेना लेकर झाँसी के मऊरानीपुर व बरुआ सागर पर आधिकार कर लिया उसने झाँसी के किले को चारो तरफ से घेर लिया व जमकर तोपों से प्रहार किया !खूब गोलाबारी हुई अंत में नत्थे खान प्राण बचाकर भागा !
21 march 1858 को ब्रिगेडियर स्टुमर्ट के सहयोग से सर ह्यूरोज़ ने झाँसी को घेर लिया बारह दिनों तक युद्ध चला!
राव दूल्हा जू देव व अली बहादुर जैसे देशद्रोहियों ने विशवास घात किया!राव दूल्हा जू देव ने आग्रेजो की मदद के लिए ओरछा दरवाज़ा खोल दिया!
इस युद्ध में बानपुर के राजा मर्दनसिंह तथा बांदा के नबाब ने झाँसी की सहयता की आग्रेजो ने रणनीति तैयार कर ली थी अब हार सुनिश्चित थी !तब रानी ने सब सहयोगियो को बुलाकर योजना तैयार की सबने यह निछ्चय किया की सुबह सभी मार काट करते हुए भाडेरी फाटक से शत्रुओ से अंत समय तक लड़ते हुए शत्रुओ से जुझेगे!सुबह रानी भान्देरी फाटक से कालपी पहुची कालपी से रानी ग्वालियर पहुची व ग्वालियर के किले पर आधिकार कर लिया!16 जून1858
को आग्रेजो ने वहाँ भी आक्रमण कर दिया!झाँसी की सेना को परास्त पडा! रानी का घोडा उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिया भागा पर आगे एक बरसाती नाला आ जाने के कारण रानी को रुकना पड़ा पर घोडा मारा गया!रानी की पसलियो में गोली लगी!एक गोरे की तलबार का भरपूर वार रानी के माथे व कंधे को चीड गया!उन्होंने आदेश दिया उनकी मृत देह आग्रेजो के हाथो न लगने पाए !व साधु गंगादास के हाथो गंगाजल पीकर देह विसर्जन किया!उनकी चिता को घास पर रखकर जला दिया गया!
उनके इस बलिदान पर हुरोज़ ने कहा था -सम्पूर्ण विश्व में रानी सबसे वीरांगना व कुशल महिला थी!उनके हाथ मखमली दास्तानो के भीतर उनकी उंगलिया फौलादी थी!
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